Monday, 5 October 2015

घर

घर - घर  की रट
सुना करते थे ,
बाज़ारों में भी इनके मुत्तलिक
तमाशे हुआ करते थे _
कम दामों में किश्तों का
दावा किया करते थे .
हमने भी सोचा , चलो
इक घर खरीदा जाये ,
वो घर , जो है सपनों का घर ,
अपनों का घर ,
खुशियों का घर .
यह सोच कर चले ,
चलो कुछ घर दोस्तों के
देखा जाये .
घर की शक्लें देखीं तो
अजब हाल हुआ ,
पसीने से बुरा हाल हुआ .
अजायब घर भी कभी देखे थे हमने ,
पर अब हर इक घर ,
अजायब घर सा हुआ .
इंसान की शक्लों में दिमाग़
को बसते देखा ,
घर जिसे ' दिल का मंदिर '
कहते थे कभी ,
उसे विलीन होते हुए देखा .
क्या करें ऐसे घर का ,
जहाँ ना तालमेल हो दिमाग
और दिल का .
चलो वापिस चले अपनी
झोपड़ में ,
जहाँ खुशियों का पुलिंदा
बसा है मन में .

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