Monday, 5 October 2015

तमाशा

बचपन में तमाशा देखना
बहुत बड़ा शौक था ,
जॉक था .
चले जाते थे उँगलियाँ थामे ,
बाबूजी के संग .
कभी खुद को निहारते ,
कभी तमाशे के रंग - ढंग .
हर इक अदाकार सयाने लगते ,
बड़े होने पर हर के मायने
बदले लगते .
क्या जानते थे _
जिस जोकर को देख
हम कभी हँसा करते थे ,
अब सूरते- हाल ये है कि
जोकर के मानिंद
अपनी जिंदगी जिया करते हैं .
पहले जिन बातों पे आती थी हँसी ,
आज वही हालात रुलाया करते .
चलो बहुत हो चुकी है शाम ,
थोड़ा खुद को सँवारा जाये .
बहूत जी लिये ग़म में ,
अब खुद को हँसाया जाये .

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