'आह ' से 'वाह ' का सफ़र
कितना कुछ कह जाता है .
'आह ' में रहकर प्राणी
सफर 'वाह ' की कर जाता है .
कितनी उम्र गँवा जाता 'आह ' में
बस इक 'वाह ' के पाने में .
जब तक जीया 'वाह ' की खातिर
तब तक 'आहों ' में ही जीवन बीता .
जब से 'वाह ' की चिंता छोड़ी
'आह ' ने भी दामन मेरा छोड़ दिया .
जीवन से बस इतना सीखा
खुद कॊ ऐसे प्यार करो , विश्वास करो
ना फ़िर ख्वाहिश हो पुनर्जन्म की
ना ही किसी से उम्मीद रहे .
फ़िर क्यों कोई 'आह ' भरे ,
फ़िर क्यों कोई 'वाह ' करे.
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