Wednesday, 23 December 2015

नारी तेरी जुबानी

हर बार खुश होकर इतराती हूँ
जन्म सफ़ल है मेरा जो _
जो बेटी बन घर आई हूँ . तभी चीखने की आवाज़ जो आई , मन बोला
हे  मेरे भगवान , क्यों तूने ऐसी रचना बनाई . 
जिसने  वजूद है ऐसी पाई जो ,
इंसाँ को ना जीने देता है , ना मरने देता .
कहने को तो ये सुन्दर नारी है
एक विश्वास है ,
पर जिसके जन्म से बदले- बदले से
सबों के एहसास हैं .
कहने को तो ये ससुराल की लक्ष्मी है .
पर कौन जाने ,
ये उसकी बदकिस्मती है .
विडम्बना ये कैसी  कि तुझे जो
जीवन दे डाला _
कहने को तो तुम में
चंद्रमा की शीतलता
मधु की मधुरता , मोरनी सी चाल है
क्या सच में ये हाल है ?
ज़िंदगी की रफ़्तार ने , ज़माने के कुचाल से
विशेषण सारे विलीन हो गये .
ज़िंदगी की आज़माइश में
जो बचा रहा , वो है दुर्गा का रूप ,
अब बस यही तेरा रूप ,
तेरा यही स्वरूप .

एक श्रधांजलि 'nirbhyaa' स्व . ज्योति सिंगजी को .

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