आज जरा 'उमर खय्याम 'को पढ़
थोड़ा सूफीमय हो गई हूँ .
जिंदगी से इक वादा था चुप ना बैठूंगी कभी ,
चाहे जितने भी तूफान को पार हो करना .
आवाजें लगाना ना था मकसद मेरा ,
ना था मकसद हंगामे ही बरपा करना
एक जगह से जो आई , इक उम्र जो मैंने पाई ,
तजुर्बा ही तो है , जिसे लोगों को था बताना .
आज जिंदगी के उस मोड़ पे हूँ _ बस इतना समझिये , ग़म और खुशियों के बीच खड़ी हूँ . *
आशा का दिया जो कभी मैंने था जलाया उसके लौ को बुझाया या आगे बढा रही हूँ .
जिंदगी तो नाम है उतार - चढाव का
क्या मैं उसे पार कर पा रही हूँ ?
सपना बस इतना है _ प्यार रहे , सौहार्द रहें ,
इस जीवन को जिया है , उस जीवन में है जाना .
*वो स्थिति जहाँ दुनियाँ ना आप को ग़म से ग़मगीन कर पाता और खुशी से आप उत्तेजित नहीँ होते .
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