Thursday, 24 December 2015

राष्ट्रवाद

आज हम किस हाल में पहुँच गये हैं कि देश के सम्मान की तो बात ही समाप्त हो गयी है. अपनी  लोकप्रियता का इतना अच्छा shortcut निकाल लिया है कि मानसिकताओं पर हैरानी होती है . नेता तो नेता अब लेखक भी जिसे सम्भ्रान्त और बुद्धिजीवी वर्ग कहा जाता है और समाज में एक आदर का स्थान है , उन्हें भी इतनी तुच्छ प्रसिद्धि का मार्ग मिला . क्या उनके ऐसा करने से उनकी तटस्थता विलीन नहीँ हो गयी और खुद को भी राजनीतिक मायाजाल में नहीँ धकेला . शायद ये घातक स्थिति की तरफ़ इशारा कर रहे हैं . 

" राष्ट्रवाद "
बचपन में जिनके किस्से- कहानियाँ
सुनी थी ,
उन्हीं बातों को, सवालातों को
बड़े होने तक लिये चली थी .
अब मैं आज़ाद हूँ ,
अपने सोच की परवाज़ हूँ ,
बस यही सोच से ,
साम्यवाद को अपनाया था ,
मार्क्स को अपना खुदा बनाया था .
जवानी में मार्क्सवाद का नशा ,
इतना सर चढ़ कर बोलेगा _
समाज बदलने की ताकत ,
खयालात बदलने की ताकत ,
मंदिर, मस्जिद, अट्टालिकाओं को
ढाहने की ताक़त ,
एक समदृष्टि बनाने की ताक़त
दिवास्वप्नों में आने लगी .
नींद खुली तो पाया _
अपनेलोगों ने ही तो
साम्यवाद में घुन लगाया .
बस अब इतना समझ में आया कि ,
" वाद " कोई भी बुरा नहीं होता .
ये तो परिस्थितियाँ हैं जो
इंसानों से समाजों में बन जाती हैं .
गरीबी में " साम्यवाद "
अमीरी में "बाज़ारवाद और साम्राज्यवाद " ,
सोया रहा तो नित " गुलामी " ,
जाग गये तो " क्रांति " पक्की .

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