Wednesday, 23 December 2015

हास्य : शृंगार रस में .

सोचा चलो थोड़ा शृंगार  और हास्य रस को मिलाया जाय :-
 
एक मद - मस्त महाराज
लिये होठों पर मंद - मुस्कान
चले जा रहे थे अपने नार - नवेली के संग .

वो गजगामिनि इठलाती , बलखाती
चले  जैसे नदी के संग इतराती , इठलाती
पर्वतों के संग लहराती ,

चल रही जैसे घटाओँ से करती अठखेली
कभी करे छटाओं से आँख मिचौनी ,
कभी पूनम की रात लगे .

चले झरनों के संग , जैसे
लागे बजे मृदंग , बजे पायल की छम - छम
है सोलहों कला परिपूर्ण .

कोमलता , जैसे सही ना जाय
वाणी , जैसे वीणा की तान
भाव , जैसे हो मृदु मुस्कान .

गोरी बाहों को देख , उत्सुकता का बढ़ा वेग
जैसे क़दम बढा महाराज का, पत्नी की आवाज़ आई
" अजी सुनते हो , भोर हुई क्यों नहीँ उठते हो .

क्या आफिस नहीँ है जाना , जीविका नहीँ है चलाना
ना जाने नींद में क्या - क्या बोलते रहते हो
मुझ पर क्या गुजरती है , क्या कभी सोचते हो .

इतने में महाराज की नींद खुल गई
सपनों की नार - नवेली ना जाने कहाँ विलीन हो गई .
अब क्या था _ बस ढाक के वही तीन पात
वही जीवन , वही दिन और वही रात .

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