जब इंसान की सेहत नासाज हो और रात का समय , चारों तरफ़ से खराटे की आवाज़ हो तो मन और दिमाग बहुत बेचैन होने लगता है . ऐसे में हम अपने पिछले जीवन के कई काल खंडों को जी जाते हैं _ अच्छी भी और बुरी भी . गत तीन - चार दिनों से viral के चपेट में हूँ . बेचैनी के आलम में मैं अपने विश्विद्यालय के ज़माने में जा पहुँची . (मेरा मानना है कि JNU , New Delhi में बिताये पाँच साल मेरे लिये बेशकीमती है. मुझे वहाँ के जर्रे - जर्रे से आज भी उतनी ही मुहब्बत है .)मेरे उन्हीं दिनों को समर्पित ये कविता _
आज ना जाने अतीत में मन क्यों विचर रहा ,
उन दोस्तों को तलाशती मेरी आँखें और मन
मुस्कान भर रहा .
था वो दौर जब हम चाय की चुस्कियों पर मिला करते ,
25पैसे की एक प्याली पर घंटों विश्व पटल पर चर्चे किया करते, और
ऐसे ही मद - मस्त जिया करते .
कभी अपने वाद- विवादों से PM की कुर्सी को
हिलाया करते , और
बन पड़ी तो नये CM को अपनी बात में लाया करते .
वो भी क्या दौर था _ मंडल - कमण्डल का चहूँ ओर शोर था .
सद्दाम बने थे हीरो , क्लिंटन के लिये भी चर्चा कुछ और था .
ना था वो उतना मोबाइल और इंटरनेट का ज़माना
पर खबरें तेजी से फ़ैल के हो जाती फ़साना .
पर जनाब , जेहनी लोगों का दौर था ,
इल्म की बातों से ही खुद को हम अमीर समझा करते ,
जेब में कहाँ थे इतने पैसे कि खुद को गरीब समझाकरते .
आज ना वो दोस्ती है ना दौर है ,
बस पैसे ही पैसे की होड़ है .
रिश्ते भी पैसे ही ढूंढा करतीं ,
इंसानों की ना रही कोई पूछ है .
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