Tuesday, 31 May 2016

अभिभावक ,बच्चे और समाज

              आज हमारे कुछ मित्रों में बच्चों द्वारा की गई नादानियाँ और उसके पश्चात के असर पर एक स्वस्थ बहस छिडी है और सबों से इस बारे में राय जानने की इच्छा भी है.बहुत सारी बातें जहाँ बच्चे एक किशोरावस्था की उम्र में एक बगावती बिगुल बजा बैठते हैं ,जो की इस बात की निशानदेही करता है कि बच्चा अब समझदार होने लगा है पर ,परिवार इस बात को आत्मसात नहीँ कर पाते.बच्चे और परिवार के समझ के बीच का यही फासला ही व्यक्तिव निर्माण में प्रभावशाली भूमिका निभाता हैऔर जीवन पर्यन्त चरितार्थ होते रहता है .यह सकारात्मक भी हो सकता है और नकारात्मक भी.
               अभी गुजरे चंद दिनों की बात कर लें 10वीं -12वीं के परीक्षाफल ने ही बच्चे -अभिभावकों में से कितने को आपसी रिश्तों में नज़दीकी या दूरी बढा दी होगी.चिकित्सा एवम तकनीकि शिक्षा प्रवेशफल ने भी कितने घरों में मायूसी दी होगी. क्या जीवन इतने पर ही रुक जाती है क्या ? नहीँ ना , बात बस इतनी कि समाज की बातों को झेलने की हममें ताक़त नहीँ.हमारे साथ भी कुछ गलत हो सकता इस सोच को कभी अपने अंदर आने देना नहीँ चाहते और फ़िर शुरू हो जाती है बात मनवाने की जिद्द.जिसका असर अहं पर भी पड़ता है.कुछ बातों का अगर ध्यान रहे तो शायद कुछ नादानियों को टाली जा सकती है
1_ बच्चे परिवार में रहकर भी खालीपन     के अहसास से गुज़रते हैं , काश कि इस एहसास को माँ -बाप समझ पाते ,

2_ माँ -बाप का आपसी रिश्ता का भी असर बच्चे के व्यक्तित्व निर्माण पर असर करता है जिसके इर्द -गिर्द ही बच्चे की पूरी ज़िंदगी गुजरती है ( जो कि बहस का एक महत्वपूर्ण विषय हो सकता है )

3_बच्चों के खुद के अंतर्द्वंद में माँ -बाप की भूमिका

4_संस्कार शिक्षा

5_माँ -बाप का अपने नींव से जुड़ा होना ,जहाँ अपनी हैसियत और जो कुछ भी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में ,समाज में हो रही नई गतिविधियों के बाबत बच्चे में एक पारखी और सूझ -बुझ वाली नज़र पैदा करना माँ -बाप की अहम जिम्मेदारियों में से है
       इन बातों को अगर ध्यान रखा जाये तो शायद ये post हर किसी को विचलित नहीँ कर सकती  दबाव की ज़िंदगी में ज़रूरत नहीँ ,बस ज़रूरत है दृष्टि ,श्रवण और मस्तिष्क पटल को जागृत रखने की.@Ajha.31.05.16

Monday, 30 May 2016

आवारगी

तलाश में एक राह की
पहुँच चुकी है वहाँ ज़िंदगी
तंहाइयों में भी है इक खुशी
अनजानी सी राह भी हो चली अपनी
कितनी आसां सी है हर मुश्किल
ना सोचना अब हल ठोकरों का
मसायिलों को खुद-बा-खुद राह दिखने लगी
ना रही अब कोई मुश्किल
ना कोई अब मुजीर (harmful)
ना मुँहताज़ी ही (needy)
ना ही है महदूदियत (limitation)
ना हि मूहाफिज कोई यहाँ
ना अब कोई मसखरी (ridiculous)
बस मूत्तफिक हूँ
मुत्तहिद  , मुतमईन
आरायिशे दिल
ना कोई तिश्नगी
बस है महफूजियत
इक मौसिकि है मिल गई
ममनून हूँ , ऐ ज़िंदगी !(thankful)
कि अब मैं हूँ और मेरी
आवारगी.

* आवारगी यानी रोज़मर्रा की ज़िंदगी से अलग शायर जो अपने लिये एक  दुनियाँ तलाश लेता है
और वही अब उसकी ज़िंदगी हो.

Saturday, 28 May 2016

कश्ती भी छीनी किनारा भी छीना
पर हौंसला तो देख मेरा
हमने लहरों में भी जीना सीख लिया.

Thursday, 26 May 2016

सूफी प्रेम

हे प्रिय ! देखो ना
कितना आनंदित हूँ
आह्लादित हूँ
एक अलौकिक नूर से नहाई
चाँदनी रात में
इस सुन्दर सी,अद्भुत सी
अन्गुरी बागीचे में
फूलों की सुंदरता में
खुश्बुई आबोहवा में
अनेकों सुर लहरियाँ
पक्षियों की चहचहाहट
जुगनुओं की चमचमाहट
बसंत उत्सव मनाती ये रात
अनेकों खुशियों की ले के सौगात
पर हाँ ,क्या करना इनका
जब तुम ही नहीँ पास
और जब तुम हो पास
क्या ज़रूरी है _इनका साथ ?

सरबजीत

        अभी दो -तीन दिन ही हुए होंगे,परिवार के साथ "सरबजीत " (सिनेमा ) देखने गई थी.मुझे अंदाजा हो चला था कि यह मेरे तरह की फिल्म नहीँ होगी बावजूद इसके पतिदेव की इच्छा को मान लिया .फिल्म देख भी लिया पर एक बात समझ में नहीँ आई कि इस फिल्म को बनाने का मकसद आखिर क्या रहा होगा  ?
            ऐसे हृदयविदारक दृश्य जो कि मन को विचलित कर जायें , हम बच्चों को क्या दिखाने ले जा रहे ? एक इंसान जिसके नशे की आदत ने अपनी ज़िंदगी का तो खात्मा किया ,पर साथ अपने कितने लोगों को बेमौत जीने के लिये मजबूर कर दिया.परिवार की स्त्रियाँ बेवा और बच्चे अनाथ कर दिये.बात यही दीगर होती जो देश के लिये शहीद होता.
             आज दूसरे देश के जेल और कैदियों की दुर्दशा दिखा क्या हम इसकी दशा सुधारना चाहते हैं या अपने आने वाली पीढी में एक वैमनस्यता की भावना पैदा कर रहे हैं.क्या इससे
फिल्म को देख नशाखोरी में सुधार आयेगी या नशा बेचने वाली दुकानें बंद हो जायेंगी.
               देश तो अपना जवाब अपने हिसाब से  सम्बन्धित देश को दे ही देता है पर ज़रा सोचिये ऐसी हालत में वो परिवार अपनी ज़िंदगी गुज़र बशर कैसे करता है ! मैं फिल्म के निर्माताओं से यही जानना चाहती हूँ कि
  1: इस फिल्म को बना कर वो सम्बन्धित परिवार का सम्मान कैसे वापस लाने वाले हैं.

  2: क्या ये बेहतर नहीँ होता कि देश पर शहीद होने वाले किसी फौजी जवान के जीवन की सच्ची घटना पर आधारित फिल्म बनती जहाँ देश प्रेमf को और बढावा मिलता और समाज फौजी लोगों से और करीब होते.

*ये मेरे मन के उदगार हैं हो सकता है मैं अपनी सोच में कहीँ गलत भी हो सकती , आप लोगों की राय जानना चाहूंगी.l think its a film for those who enjoys sadistic pleasures.but one thing is sure that acting of each one them _ excellent,undoubtedly. 

Wednesday, 25 May 2016

रामराज्य और स्त्री

लोग खुश हुए थे तब
वनवास काट राम अयोध्या
आये थे जब
चहू दिस शोर मची सर्वत्र
नगर में होगा रामराज्य ही बस अब
कैसी खुशी कितनी खुशी में
जिये जा रहे थे तब
किसी ने ना देखा अश्रु धार को
जो बहे सुनयना , सुमित्रा
सीता के आँखों से लगातार वो
राजधर्म का पालन कर
हुए राम ,लक्ष्मण भरत महान
कैसे भूला स्त्री त्याग को ये इंसान
बेहतर हो जो समझ जाओ
सीता की वंशज हो
त्याग ,भाव की मूरत खुद में
तुम बन जाओ
ना कर पाये जो इस बात का ख़याल
समाज तुम्हें तब बतलायेगा
ऊँची कितनी ही कर लो तुम उड़ान
एक डोर ही काफी है
तुम्हें ज़मीन पर ले आयेगा
पर ये कभी ना भूलना
कृष्ण जन्म भी एक साधक
शंकराचार्य भी है प्रवर्तक
राम बन धोबी पाट हर कोई बता
सकता , चला सकता
इंसान वही वो सच्चा है
'वैराग्य' पथ पर जो चल सकता है.

उलझी सी ज़िंदगी

ज़िंदगी अपनी कितनी उलझनों से भर ली
हमने
सामने ही थी खुशी और खुद से दूर कर ली
हमने
हँसते रहते थे हम सदा ना था खामोशियों का
इल्म कभी
ये कैसी तोहमत ,ये कैसे अदावत कि
ज़िंदगी में ना था जिक्र कभी
हर बात को फ़साना बना उड़ा देना
ना थी कोई शिकायत कभी
आज हाल क्यों ऐसा कि किसी में
खैरखवाहि नज़र आती नहीँ
क्यों आदत सी बन गयी कि सोचें
हरदम नासाजगी की
हालत ऐसी बना ली हमने, वो आये तो थे
हाल ही पूछने
गुफ्तगू जो थीं उसे मुझसे करनी,
भरी महफिल से चुपचाप ,वो यहाँ से
तशरीफ़ ले गये
खुदारा खैर नींद मेरी तब खुली जब
शाम होने को आई
ऐसी भी क्या मशरुफियत थी मेरी कि
वो गए और तभी से मैं खाली हो गई
ना था नज़रंदाज़ करना उन्हें पर
क्यों कारे -रोज़गार ने मुझे ऐसा
बना दिया.
अब फ़िर से जी उठी हूँ
मंजिेल भी दीखने लगी है  मुझे
बेशकीमती जो पाया है ज़िंदगी ,
इंशाअल्लाह बखूब जीउन्गी उसे.
@Ajha ,

Saturday, 21 May 2016

"बुद्धम् शरणम् गच्छामि "

अजब था वो माहौल बड़ा
समाज कोलाहलों के बीच पड़ा
तब राजतंत्र की बातें थीं
निरंकुशता की सौगातें थीं
अतिवादी का वो दौर बड़ा
दकियानूसी से भरा पड़ा
छोड़ राज -पाट और मोह को
वो 'राजकुमार' धर्म की राह चला
दिव्य ज्ञान  जो उसने पाया
'गौतम बुद्ध ' वो कहलाया
'मध्यम मार्ग ' का लोगों को
जो सूत्र उसने बतलाया
कत्लो-गारत करने को'अँगुलिमाल'
भी बौध्द भिक्षु बन बैठा कह कर
"बुध्धम् शरणम् गच्छामि "
सांसारिक सुखों से भरा पड़ा
सम्राट 'अशोक' था नाम जिनका
ना रास आई जीवन की नीरसता
लेकर संग अपने वो काफिला
धर्म की राह पर चल निकला
"बुध्धम् शरणम् गच्छामि "
हे बुध्द ! आज फ़िर देश
तुझे है बुला रहा
भौतिकता की अतिवादी में
असहिष्णुता की राह
पर  है देश है चल पड़ा
सूत्र भी तेरे अब कमज़ोर पड़े
आ फ़िर से एक बार आ
लोगों को फ़िर से
अपना वो सूत्र बता
देश तरक्की पर चल जाये
लोग खुशियों में रम जायें
मध्यम मार्ग का बस यही
एक  सूत्र रहे _
"बुद्धम् शरणम् गच्छामि "

Wednesday, 18 May 2016

lnternational Museum Day

" Dedicated to International Museum Day "
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               Let me introduce you all , the very rare type of museum _Sulabh l lnternational Museum of Toilets. This museum was the topic of my dissertaion. For the research work l visited lots of archaeological sites and monuments so that l could find the factual history of  urbanisation in India through sanitation systems . As one should  know that the the first and one of the most important pillars in the urbanisation field is , how well a society keeps its sanitation system . Our lndus Valley ,Harappa ,Mohan -Jodaro are such unique examples .Even our scriptures also mentioned  the scientific sanitation. Mughal period 's luxurious 'hammam ' still a center of  attraction also an antique piece of art , architecture and technology . There are many stories related to diplomatic talks and .pacts settleled with other countries .And the came the western system during pre and post Independence.Now for the creamy layers it is again a matter of  luxury but poors are still in their old practices system .More of it Indians believe very much in cleanliness but it is not community based but only limited to individuals .  So never think any field inferior ,there are so much still to know ,learn and practice....
Think of "एक भारत ,स्वच्छ भारत ".

Museums stands for practical knowledge . Knowledge with mission .
To make museum purposeful
Do visit museums and encourage others also .@Ajha 18-05-16

Saturday, 14 May 2016

"भिखारी "

चिलचिलाति धूप में वो
भिखारी हाथ पसारे
कहता जा रहा _
दे दाता के नाम,होगा तेरा भला
कह बैठी मैं भी उससे _
ना दूँ तुमको जबकि हो
तुम हट्टा -कट्टा
क्यों करना कुछ तुझको
नहीँ भाता
था वो इंसान कुछ ज़हीन-सा
पर वो चुप ना बैठा ,आई ना
ना उसे तनिक भी शर्मो -हया
दिन -भर जो घूमूँ भीख माँगने
है मुझे भी तो परिवार पालने
सेहत भी तो ज़रूरी है
ये हम जैसों की मजबूरी है
फ़िर जो उसने शुरू किया बोलना _
साहब मैं तो एक हूँ इक भिखारी
भीख माँग के पेट पालता
पर खुद की सोचिये ,क्या
औकात है आपका
पढ़े -लिखे रईस जान पड़ते हैं आप
पर तरक्की के लिये
कहना पड़ता है  'गधे को बाप '
भीख माँगने को कैसी -कैसी
जगह हो ढूँढते
सीधे 'सवा -डेढ़ ' का भोग लगा
भगवान को हो आप आंकते
नेता भी इसमें कुछ कम नहीँ
गरीबों का इनको ग़म नहीँ
वोट के लिये बांटे रोटी और कम्बल
करोड़ों का खेल हज़म
कर जाते अपने अंदर
व्यापारियों का हाल तो देखो
देश बिके ,नहीँ ख़याल तो देखो
पॉकेट में इनके माल तो देखो
धर्म के ठेकेदारों का भी वही हाल है
इनकी तो चल पड़ी
अच्छी दुकान है.
देवों से भी नाता इनका ऐसा
खेल जमूरे -मदारियों वाला हो जैसा
साहब मैं इक अदना सा भिखारी
नंगे तन अपना पेट पाल रहा हूँ
जो भी आ जाये झोली में
संग परिवार के खुशियाँ
बाँट रहा हूँ
पर उनका क्या जो
पढ़े -लिखे चोरी ,गारत ,क़त्ल
पर आमदा हैं
देश को टूकड़ोँ -टूकड़ों में बेच
खा रहे हैं
इतना सब कह कर ,तभी उसने
दिया विराम अपने बातों पर
ध्यान कुछ मेरा भी मोड़ा ,
कुछ यूँ कह कर
जी आप भी कुछ फरमा रहे थे
रात भी हो गई और आप भी भूलते
जा रहे
कल फ़िर मिलूंगा इसी रास्ते पर
याद आ जाये तो बता दीजियेगा वो सब
फ़िर सोचती रही मैं यह सब शब भर
क्या एक अदना आदमी भी सोच सकता
यह सब
फ़िर कैसे घुन लग गया
"देशभक्ति " पर.
@Ajha 14.05.16

Friday, 13 May 2016

" ढाई आखर प्रेम का "

             कई सालों के बाद आज आनन्दी( मेरी बहन ) अपने collage के ज़माने की सखी आरती से मिलने जा रही थी.शायद खुशी के मारे रात में वो ठीक से सो पाई हो,सुबह उठते ही अपने यादों के चर्चे में वो ऐसे मशगूल हो गई कि ना चाय की सुध ना ही नाश्ते की.फ़िर तो जल्दी से नहा धोकर , बिना कुछ खाये -पीये,  खुशी और मुस्कान की मुद्रा लिये हुए   उसे घर से मैंने  जाते हुए देखा था.और मैं ,तभी से उसके वापस आने का इंतिजार करने लगी थी, ताकि मैं भी उसके हर एक खुशी से बिताये हुए क्षण को जी सकूं.पर ये क्या ??? आँखों में आँसू ,चेहरे पर विस्मयात्मक भाव ,कुछ भी बोलने में अक्षम उसने तो खुद को आते ही अपने कमरे में बंद कर लिया था. बहुत मिन्नतों के बाद जब उसने दरवाज़ा खोला तो रोते हुए बोल पड़ी _ अब आरती के माँ -बाबूजी इस दुनियाँ में नहीँ रहे.हमने भी ज़िंदगी की रीत बताते हुए उसे सम्भालने की कोशिश की.
                 आनन्दी और आरती एक ही कॉलेज में पढ़ते थे , एक ही होस्टेल और एक ही कमरा , मिजाज भी तक़रीबन एक -सा. इस कारण इन दोनों सखियों की  अंतरंगता इतनी प्रगाढ्ता में बदल गई कि अपने में छिपी ,दबी बातें भी आपस में साझा होने लगी थी  और साथ ही समय पर एक दूसरे की सलाह भी मानने लगे थे .इन्हीं बात -चीत के दौर में आरती ने अपने माँ -बाबूजी की कहानी भी सुनाया करतीं  कि कैसे दोनों एक हुए.  बचपन में वो दोनों पडोसी हुआ करते थे ,दोस्ती बेमिसाल के संग पढाई की प्रतिस्पर्धा भी उनमें बराबर की रहती थी. डॉक्टरी पढाई भी संग -संग ही उनकी हुई  थी.मेधावी होने के अतिरिक्त अन्य कई क्षत्रों  में माँ और पिताजी को दक्षता हासिल थी.इस कारण इनकी दोस्ती पर हर खेमें की निगाहें होती थी.सुंदरता के मामले कुछ ऐसा की दोनों ही श्याम वर्ण होते हुए भी लोगों की नज़रों को आकर्षित कर ही जाती थी.
               एक समय ऐसा आया जब चिकित्सीय  अध्ययन के पूरा होते ही अमेरिका में भविष्य बनाने का सुअवसर इन्हें प्राप्त हुआ.अनेकों मेडल ,प्रशश्ति पत्रों एवम वजीफों से नवाजे ये जोड़ी अपनी कामयाबी के चरमबिंदु को छू रहे थे परंतु , समाज सेवा और देश्भक्ति के जज्बे ने इन्हें बहुत कम समय में अपने छोटे से शहर बुला लिया. अब ये अपने शहर के चिकित्सा महाविद्यालय में अध्यापन में कार्यरत हो गये.परंतु कुछ समय उपरांत निजी चिकित्सालय का शुभारम्भ  किया जिसका ध्येय अपना गुजारा चलाना और समाजसेवा की भावना थी.
                    समय बितता जा रहा था और साथ ही  आरती के डॉक्टर माँ -पिताजी अपने लक्ष्य को सार्थक रुप से अंजाम दे रहे थे ,ऐसे में इस क्षेत्र से जुड़े यार - दोस्त , सगे - सम्बन्धियों ने भी काफी साथ दिया.दिन दूगुनी रात चौगूनी कामयाबी ने अब कुछ बुरे वक्त भी दिखाने शुरू कर दिये थे.गलत दोस्तों ,सगे सम्बन्धियों की सोहबत ने इस परिवार के अंदर ज़हर भी घोलना शुरू कर दिया था
            दरअसल ,बात इतनी आसान नहीँ थी.आरती के माँ -बाबूजी दोनों डॉक्टर थे. शायद माँ ने अपना ध्यान अपने परिवार और अपने पेशे पर केंद्रित कर रखा
था  जिससे बच्चे अपने पढाई और संस्कार में सदैव ही अव्वल रहे और पेशे में मेहनत का रंग ऐसा चढ़ा की मरीजों का दिन -रात तांता लगा रहता और इस तरह  वो  अपने पेशे में काफी आगे निकल चुकी थी. दूसरी तरफ़ ,डॉक्टर पिताजी कामयाबियों के शोहरत में यार दोस्तों के साथ मदिरा सेवन एवं अय्याशियों में खुद को लीन करते गये कि इस कारण मरीजों को इनसे इलाज कराने के बजाय दूसरे डॉक्टरों के पास जाना बेहतर जान पड़ने लगा .इस कारण घर का माहौल कुछ बिगड़ता जा रहा था ,बच्चे भी माँ की स्थिति को देखते हुए अक्सर यही कहते _क्यों सहती हो ,क्यों नहीँ छोड़ती यह सब. पर माँ जानती थी इन सब गृह क्लेश और विषम परिस्थितियो के पनपने का कारण उनके आपसी प्रेम में आई कमी नहीँ थी बल्कि बहुत कम समय में इनका शहर को अपना बना लेना ,शहर में पहले से स्थापित डॉक्टरों के वर्चस्व पर जो आघात लगा उस कारण गुटबाजी का शिकार होना था जिससे कि यह परिवार जड़ से ही तबाह हो जाये.अतः इन बातों को जानते हुए ,अपने बच्चों की इन बातों पर माँ मुस्कुरा जातीं.आरती और उनका भाई इसी माहौल में पलते -बढ़ते गये ,अपने पैरों पर खड़े हो गये.अब सभी अपने परिवार में रम चुके थे ,आरती और उनके बच्चों की गाथाएँ ही इतनी होतीं थीं की डॉक्टर माँ को यह सब बताने में ही समय गुजरने लगा और माँ -पिताजी के कलह की बातें ऐसे खुशी के माहौल में दब कर रह गईं.माँ पर अब भी क्या कुछ बीत रहा था इसका अंदाजा लगाना भी भूलने लगे थे कि तभी एक दिन पिताजी के सहसा तबियत बिगड़ने की ख़बर आई और यथा शीघ्र बच्चों को घर पहुँचने को कहा गया.
                    बच्चे अपने पिताजी के सिरहाने बैठे बातें कर रहे थे,ऐसा ज्ञात हुआ की डॉक्टर पिता अत्यधिक मदिरापान से लीवर cancer के शिकार हो चुके थे. तभी डॉक्टर ने माँ को पास बुला इस बात की पुष्टि कर दी कि पिताजी चंद घड़ी के मेहमान हैं.माँ डॉक्टर के साथ बाहर निकली , बच्चों से भी विदा लिया यह कह कर कि मैं आ रही हूँ , अस्पताल की ऊपरी मंजिल पर पहुँच छलाँग लगा दिया. माँ पहले और पिताजी उसी दिन बाद में स्वर्गवासी हो गये.
                     बच्चे और समाज ने इस माँ का अपने पति के प्रति प्रेम का अंदाजा लगाया जो कि अद्वितीय था.बच्चे तो इस दुख की घड़ी को समझ ही नहीँ पा रहे थे शायद यह शहर और इससे लगी आस -पास की सीमाओं के शहर ,गाँव कस्बा सभी को इस ख़बर ने हैरान कर दिया और हिला कर रख दिया था.ये एक ऐसी घटना रही जो अखबारों की अगले कई दिनों तक अखबार की सुर्ख़ियां बनीं रही.सबों के जुबां पर यही किस्सा कई दिनों तक रहा और कितने ही दिनों तक लोगों के मस्तिष्क पर छाई रही.
            घटनाएँ और हादिसात तो जीवन में देखने को अनेकों मिलते हैं पर किसीकी प्रेम कहानी का आगाज और अंजाम ऐसा हो जहाँ , प्रेम को समझना शायद प्रेम करने वाला भी नहीँ अपने में समझ ना  पाए ... "ढाई आखर प्रेम "के मर्म को बताने के लिये कबीरदास ने पूर्ण अंको का सहारा नही लिया हो इसलिये कि जो अधूरा है उसे व्यक्ति कैसे अपने जीवन में पूर्ण कर इसे   परिभाषित करता है.ये एक ऐसी कहानी है जिसे बुजदिली का नाम नहीँ दे सकते क्योंकि कठिन से कठिन घड़ी का इम्तिहान भी इस डॉक्टर माँ ने दिया और ज़िंदगी से कभी हारी नहीँ ,बच्चे -बड़ों और समाज के प्रति भी अपना फ़र्ज पूरे तौर पर अदा किया था.ये वाकया ऐसा है जिसने सच में मेरी पूरी ज़िंदगी के फलसफे को ही बदल कर रख दिया और शायद तभी से मैं बैरागी मन जीने लगी.@Ajha .14.05.16

*आनन्दी -- मेरी बहन (नाम बदला हुआ )
*आरती  -- मेरी बहन की दोस्त (नाम बदला हुआ )

Tuesday, 10 May 2016

बिस्मिल्लाह खान

आज उस्ताद बिस्मिल्लाह खान साहब की पुण्य तिथि पर ना जाने क्यों मांझी की बातें याद करने का मन हो रहा है . जहाँ तक मुझे याद है , संगीत वाद्यों से मेरा परिचय शहनाई के  माध्यम से ही हुआ था . उन दिनों शायद संगीत concert में आम लोगों के जाने का प्रचलन ना हो , तो जब शादियाँ हुआ करती थी तो वहाँ  शुभ संदेश के लिये शहनाई  बजा करते थे . पता नहीँ कब और कैसे  मुझे अपने कुछ तार उन धुनों में जुड़े महसूस होने लगे थे. बड़े होने पर बाबूजी से इसका कारण पूछा तो थोड़ा रुंधे गले से बोले _ ये तुम्हें अच्छा लगता हो लड़की के बाप को नहीँ .ये बात थी शहनाई में और इसमें तिलिस्म पैदा करने वाला भला खाँ साहब के अलावा और कौन हो सकता था .
           मैं ने खाँ साहब के प्रोग्राम में शिरकत किया , तो यही पाया की उनके सुर को सुनने से ही बात पूरी नहीँ होती थी . उनका अपने शहनाई को इस नजाकत और नफासत से साफ करके उसे देखना , मानो शहनाई से आज्ञा मांग रहे हों कि क्या मैं बजा लूँ और इतना ही नहीँ धुन बजाते हुए बीच - बीच में रुककर  वाद्य की तरफ़ इस तरह निहारना की आप को कहीँ दर्द तो नहीँ हो रहा . और जब इन सबसे आश्वस्त हो जाते तो अपनी टोपी को थोड़ा तिरछी करते हुए , चेहरे पर एक निश्छल मुस्कान के साथ उनका पूर्वी धुन छेडना , माशाल्लह खुद को मैं खुशकिस्मत मानती हूँ कि ऐसे तिलिस्म की  मैं साक्षी रही . एक बार नहीँ बल्कि चार बार . मेरा मानना है कि जबतक ये कायनात रहेगी , तबतक आपका वजूद रहेगा . फ़िर भी आज क्यों ये कहने का दिल कर रहा है _ खाँ साहब , we miss you a lot .

Friday, 6 May 2016

aaj hamare desh ki jansakhya visphot ne samaj me aneko samsyayen  paida ker di huye hain. isme ek samsya ochch shaikshnik sanshthano me pravesh paane se le ker ,apne kaabiliyat ke anusaar naukari paane ki samsya mukhya roop se hai.aaj ka abhibhavak apne bachchon ko aage badhane ke liye sab kuch daav per lagaa raha hai.taki oonke bachchon ko apne jeevan me nyayochit sthan mil sake.parantu hamare desh ki vidambnaa to dekhiye.yahan jis prakar ki gunatmak medhavita bachchon me hai shayad  duniya ke kisi desh me nahi. parntu sansthano ki naganyata ne adhiktar bachon se apne pratibha ko nikharne ka avsar chin leti hai.sarkaar kee majboori aaj gharon me abhibhavak aur bachcho ke beech nakaratmak soch aur ashishnuta ka karan ban gayee hai. hum aise shiksha deker bhi samaj ko kya sandesh de rahen hai jahan bachcha  apna bachpan theek se nahee jee paa rahe hai.unhen khushnuma jeevan ko dikhane ki bajay aooske khatarnaak pratispardha wale bhavishya se avgat karate rahte hai.samay ab yah aa gaya hai ki sarkar ko hamare shaikshnik  pranali me  badlaav kerna parega. jahan bachcha  apne bachpan ko bharpoor jee sake. apne  pasnd  se vishay chunker ooski padhayee kare aur majboot rashtra banane me sahyog ker sake.aur abhibhavak ko bhi apne bachche ke liye is kash-m-kash me rahna na pare ki--"zakhm aise khaye hai dil pe ki
dikhana chahe to dikha na saken, aur dabana chahen bhi to daba na saken."

Thursday, 5 May 2016

एक इश्क ऐसा भी . . .

ना था इल्म इश्को - खुदाई - रहमत का
मासूमियत में यूँ ही खुद को जीते देखी थी

ना थी परवाह दुनिया की
ना ख़ंज़र में वो धार , ना वो वार देखी थी

ना कोई खूँखार दिखा था
हमने हर एक में अपने जैसी यारी  देखी थी

ना कोई ग़म ज़माने का
हर किसी में एक एहतराम देखी थी

तुझसे मिलने का सिलसिला क्या कहें हम
हमने तो कायनात बदलते देखी थी

सुना था  खुदा मिलने से हर जर्रा भी अपना हो जाता
पर हमने कायनात को सिमटते देखी थी

हमको जो मिला वो तुम्ही से मिला
हमने तो अपनी नज़रों की सूरत बदलते देखी थी

कहते हैं मोहब्बत में दरो- दीवार , बंदिशें मिट जातीं हैं
हमने तो खुद के मकां को ताश के पत्तों के मानिंद ढहते देखी थी .
@ Ajha .
#KaafiayaMilaao

Tuesday, 3 May 2016

जानती हूँ तुझको . . .

जानती हूँ तुझको , वो मेरे हर बात पे तेरा खुश होना
पर ये क्या हर बात पे नाराज़गी , ये कुछ ठीक नहीँ .
@ Ajha . 25. 03. 16

दौलते - इश्क

दौलते - इश्क ने मुझे बैरागी बना दिया
अब दुनियाँ की ख़बर ही कहाँ मुझको .
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उम्र भर की जो कमाई देखी
फ़कत दुनयावी , दुनयावी देखी

तुमको जो देखा तो ये गुमान हुआ
शख्सियत में तेरे जन्नत , जन्नत देखी

लोगों को परेशान , पशेमान देखा
मैंने तो तुममें खुद की रिहाई देखी .

ज़माना चाहे लाख शोर मचाये
हमने तो इश्क में वफाई देखी .

इश्क में इस कदर डूबा हूँ यारों
खुद में इक बैरागी देखी

कौन कहता है जालिम है ज़माना
सारे आलम में बन्दगी , बन्दगी देखी .

दौलते - इश्क का असर ना पूछो यारों
हमने हर सू  खुशी- ओ -  अमीरी देखी .

या रब ! बंदों पे इक नज़रें - इनायत कर
सबों में  नजरे - मुहब्बते - पाक ही  दिखे .

 
@ Ajha . 01. 05. 16
Aparna Jha .

बेटियाँ

आज हम कुछ सखियों की मनोदशा लगभग मिलतीजुलती- सी ही रही. अमिताजी अपने मायके से लौटी थीं , मन्जुलाजी अपनी बेटियों को हॉस्टेल  विदा की थीं और मेरे माँ - बाबूजी पहली बार 6दिन मेरे यहाँ हँसी ख़ुशी बीता कर गये थे . सबों ने अपनी मनोदशा का बड़ा ही सही चित्रण किया . तो मुझे भी अपनी मनोदशा
सान्झा करने की इच्छा हुई _

तन से बेशक दूर हो जाये बेटियाँ
मन से कभी दूर जाती नहीँ
एक माँ - बाप का प्यार होती है वो
और दूसरे को अपना बना लेती हैं बेटियाँ
इतना प्यार भरा है दामन में 
दूर रहकर भी याद आती हैं बेटियाँ .
पराई तो अपने मन से  हमने बनाया है
दूर देस का फ़ैसला भी उसे सुनाया है
कितने संग दिल हैं हम खातिर बेटियों के
हमेशा हिचकियों से अपनी सताया है उसे
अब रहने दो , हरहाल में जीने दो उसे
.मंज़िल खड़ी है बाँहें फैलाये
उसके राहे - सफ़र को और मुश्किल ना करो@ Ajha . 27. 03. 16

दस्तुरे जिंदगी

हर रात इक मौत को जीते हैं
हर इक सुबह एक
नई जिंदगी होती है
मौत भी कुछ पल
रुक के पलट जाती है
हर बार यही मैं कहता हूँ
रुक तो जा ज़रा कुछ पल के लिये
रस्मे-  दस्तूरे - ज़माने की 
बाँकी हैं निभाने  अभी . @ Ajha . 26. 03. 16

शरारत

शरारत जितनी चाहे कर लो शोखी कुछ ठीक नहीँ
जज्बाती हूँ पर नकारा सोच नहीँ
हार के भी जिंदगी जीना है , पर
दीदार- ए - क़यामत का कोई शौक नहीँ .
जिंदगी को मर - मर के जीना मुझे गवारा नहीँ
जंग जो इक छिडि है जिंदगी के संग
अपनी हकूके- कूवत से लड़ूं
बड़ी मुश्किल से मिली एक उम्र
जाया ना हो , सोचती हूँ
अपनी मंज़िल तक पहुँचूं
हर बार बहार ही मिले ,
ये तो ज़रूरी नहीँ
क्या हुआ जो
एक बार मुश्किल में गुजरूँ
मैंने चमन उगाया  है
फूलों में भर कर
चलो इक बार राहे- कांटों से
निक़ल कर देखूं .
दर्से  - जिंदगी सीखा गई बहुत कुछ
बस खुद पे ऐतबार कर
सफ़र - ए - अंजाम तक पहुँचूँ .
@ Ajha . 28. 03. 16
Aparna jha

तुम्हारी यादें


तुम्हारी यादों ने क्या कमाल कर दिया
अभी तो तस्सवुर ही था तेरा

बहुत नामुकिन थी ये बातें , पर ये क्या
पूरी किताब लिख दिया .

पसे - चिलमन थीं जो बातें
उसे सरेआम कर दिया .

ना होगा गवारा इस ज़माने को
क्यों ऐसी ख्वाहिश खुलेआम कर दिया .

वैसे भी इन बातों से होता ही क्या
वक्त ने इसे नज़रंदाज़ कर दिया .

इन बातों की गहराइयों को भला समझेगा कौन
इस लिये इन बातों को गुमनाम कर दिया

ज़िंदगी जीने के बहाने हैं कई और
इस लिये खुद को इन बातों से अंजान कर लिया .

क्यों हर बातों को ग़म में ही तौला करें
इस तरह खुद को खुशकिस्मत इंसान कर लिया.  @ Ajha . 31. 03. 16
Aparna Jha