कई सालों के बाद आज आनन्दी( मेरी बहन ) अपने collage के ज़माने की सखी आरती से मिलने जा रही थी.शायद खुशी के मारे रात में वो ठीक से सो पाई हो,सुबह उठते ही अपने यादों के चर्चे में वो ऐसे मशगूल हो गई कि ना चाय की सुध ना ही नाश्ते की.फ़िर तो जल्दी से नहा धोकर , बिना कुछ खाये -पीये, खुशी और मुस्कान की मुद्रा लिये हुए उसे घर से मैंने जाते हुए देखा था.और मैं ,तभी से उसके वापस आने का इंतिजार करने लगी थी, ताकि मैं भी उसके हर एक खुशी से बिताये हुए क्षण को जी सकूं.पर ये क्या ??? आँखों में आँसू ,चेहरे पर विस्मयात्मक भाव ,कुछ भी बोलने में अक्षम उसने तो खुद को आते ही अपने कमरे में बंद कर लिया था. बहुत मिन्नतों के बाद जब उसने दरवाज़ा खोला तो रोते हुए बोल पड़ी _ अब आरती के माँ -बाबूजी इस दुनियाँ में नहीँ रहे.हमने भी ज़िंदगी की रीत बताते हुए उसे सम्भालने की कोशिश की.
आनन्दी और आरती एक ही कॉलेज में पढ़ते थे , एक ही होस्टेल और एक ही कमरा , मिजाज भी तक़रीबन एक -सा. इस कारण इन दोनों सखियों की अंतरंगता इतनी प्रगाढ्ता में बदल गई कि अपने में छिपी ,दबी बातें भी आपस में साझा होने लगी थी और साथ ही समय पर एक दूसरे की सलाह भी मानने लगे थे .इन्हीं बात -चीत के दौर में आरती ने अपने माँ -बाबूजी की कहानी भी सुनाया करतीं कि कैसे दोनों एक हुए. बचपन में वो दोनों पडोसी हुआ करते थे ,दोस्ती बेमिसाल के संग पढाई की प्रतिस्पर्धा भी उनमें बराबर की रहती थी. डॉक्टरी पढाई भी संग -संग ही उनकी हुई थी.मेधावी होने के अतिरिक्त अन्य कई क्षत्रों में माँ और पिताजी को दक्षता हासिल थी.इस कारण इनकी दोस्ती पर हर खेमें की निगाहें होती थी.सुंदरता के मामले कुछ ऐसा की दोनों ही श्याम वर्ण होते हुए भी लोगों की नज़रों को आकर्षित कर ही जाती थी.
एक समय ऐसा आया जब चिकित्सीय अध्ययन के पूरा होते ही अमेरिका में भविष्य बनाने का सुअवसर इन्हें प्राप्त हुआ.अनेकों मेडल ,प्रशश्ति पत्रों एवम वजीफों से नवाजे ये जोड़ी अपनी कामयाबी के चरमबिंदु को छू रहे थे परंतु , समाज सेवा और देश्भक्ति के जज्बे ने इन्हें बहुत कम समय में अपने छोटे से शहर बुला लिया. अब ये अपने शहर के चिकित्सा महाविद्यालय में अध्यापन में कार्यरत हो गये.परंतु कुछ समय उपरांत निजी चिकित्सालय का शुभारम्भ किया जिसका ध्येय अपना गुजारा चलाना और समाजसेवा की भावना थी.
समय बितता जा रहा था और साथ ही आरती के डॉक्टर माँ -पिताजी अपने लक्ष्य को सार्थक रुप से अंजाम दे रहे थे ,ऐसे में इस क्षेत्र से जुड़े यार - दोस्त , सगे - सम्बन्धियों ने भी काफी साथ दिया.दिन दूगुनी रात चौगूनी कामयाबी ने अब कुछ बुरे वक्त भी दिखाने शुरू कर दिये थे.गलत दोस्तों ,सगे सम्बन्धियों की सोहबत ने इस परिवार के अंदर ज़हर भी घोलना शुरू कर दिया था
दरअसल ,बात इतनी आसान नहीँ थी.आरती के माँ -बाबूजी दोनों डॉक्टर थे. शायद माँ ने अपना ध्यान अपने परिवार और अपने पेशे पर केंद्रित कर रखा
था जिससे बच्चे अपने पढाई और संस्कार में सदैव ही अव्वल रहे और पेशे में मेहनत का रंग ऐसा चढ़ा की मरीजों का दिन -रात तांता लगा रहता और इस तरह वो अपने पेशे में काफी आगे निकल चुकी थी. दूसरी तरफ़ ,डॉक्टर पिताजी कामयाबियों के शोहरत में यार दोस्तों के साथ मदिरा सेवन एवं अय्याशियों में खुद को लीन करते गये कि इस कारण मरीजों को इनसे इलाज कराने के बजाय दूसरे डॉक्टरों के पास जाना बेहतर जान पड़ने लगा .इस कारण घर का माहौल कुछ बिगड़ता जा रहा था ,बच्चे भी माँ की स्थिति को देखते हुए अक्सर यही कहते _क्यों सहती हो ,क्यों नहीँ छोड़ती यह सब. पर माँ जानती थी इन सब गृह क्लेश और विषम परिस्थितियो के पनपने का कारण उनके आपसी प्रेम में आई कमी नहीँ थी बल्कि बहुत कम समय में इनका शहर को अपना बना लेना ,शहर में पहले से स्थापित डॉक्टरों के वर्चस्व पर जो आघात लगा उस कारण गुटबाजी का शिकार होना था जिससे कि यह परिवार जड़ से ही तबाह हो जाये.अतः इन बातों को जानते हुए ,अपने बच्चों की इन बातों पर माँ मुस्कुरा जातीं.आरती और उनका भाई इसी माहौल में पलते -बढ़ते गये ,अपने पैरों पर खड़े हो गये.अब सभी अपने परिवार में रम चुके थे ,आरती और उनके बच्चों की गाथाएँ ही इतनी होतीं थीं की डॉक्टर माँ को यह सब बताने में ही समय गुजरने लगा और माँ -पिताजी के कलह की बातें ऐसे खुशी के माहौल में दब कर रह गईं.माँ पर अब भी क्या कुछ बीत रहा था इसका अंदाजा लगाना भी भूलने लगे थे कि तभी एक दिन पिताजी के सहसा तबियत बिगड़ने की ख़बर आई और यथा शीघ्र बच्चों को घर पहुँचने को कहा गया.
बच्चे अपने पिताजी के सिरहाने बैठे बातें कर रहे थे,ऐसा ज्ञात हुआ की डॉक्टर पिता अत्यधिक मदिरापान से लीवर cancer के शिकार हो चुके थे. तभी डॉक्टर ने माँ को पास बुला इस बात की पुष्टि कर दी कि पिताजी चंद घड़ी के मेहमान हैं.माँ डॉक्टर के साथ बाहर निकली , बच्चों से भी विदा लिया यह कह कर कि मैं आ रही हूँ , अस्पताल की ऊपरी मंजिल पर पहुँच छलाँग लगा दिया. माँ पहले और पिताजी उसी दिन बाद में स्वर्गवासी हो गये.
बच्चे और समाज ने इस माँ का अपने पति के प्रति प्रेम का अंदाजा लगाया जो कि अद्वितीय था.बच्चे तो इस दुख की घड़ी को समझ ही नहीँ पा रहे थे शायद यह शहर और इससे लगी आस -पास की सीमाओं के शहर ,गाँव कस्बा सभी को इस ख़बर ने हैरान कर दिया और हिला कर रख दिया था.ये एक ऐसी घटना रही जो अखबारों की अगले कई दिनों तक अखबार की सुर्ख़ियां बनीं रही.सबों के जुबां पर यही किस्सा कई दिनों तक रहा और कितने ही दिनों तक लोगों के मस्तिष्क पर छाई रही.
घटनाएँ और हादिसात तो जीवन में देखने को अनेकों मिलते हैं पर किसीकी प्रेम कहानी का आगाज और अंजाम ऐसा हो जहाँ , प्रेम को समझना शायद प्रेम करने वाला भी नहीँ अपने में समझ ना पाए ... "ढाई आखर प्रेम "के मर्म को बताने के लिये कबीरदास ने पूर्ण अंको का सहारा नही लिया हो इसलिये कि जो अधूरा है उसे व्यक्ति कैसे अपने जीवन में पूर्ण कर इसे परिभाषित करता है.ये एक ऐसी कहानी है जिसे बुजदिली का नाम नहीँ दे सकते क्योंकि कठिन से कठिन घड़ी का इम्तिहान भी इस डॉक्टर माँ ने दिया और ज़िंदगी से कभी हारी नहीँ ,बच्चे -बड़ों और समाज के प्रति भी अपना फ़र्ज पूरे तौर पर अदा किया था.ये वाकया ऐसा है जिसने सच में मेरी पूरी ज़िंदगी के फलसफे को ही बदल कर रख दिया और शायद तभी से मैं बैरागी मन जीने लगी.@Ajha .14.05.16
*आनन्दी -- मेरी बहन (नाम बदला हुआ )
*आरती -- मेरी बहन की दोस्त (नाम बदला हुआ )