आज हमारे कुछ मित्रों में बच्चों द्वारा की गई नादानियाँ और उसके पश्चात के असर पर एक स्वस्थ बहस छिडी है और सबों से इस बारे में राय जानने की इच्छा भी है.बहुत सारी बातें जहाँ बच्चे एक किशोरावस्था की उम्र में एक बगावती बिगुल बजा बैठते हैं ,जो की इस बात की निशानदेही करता है कि बच्चा अब समझदार होने लगा है पर ,परिवार इस बात को आत्मसात नहीँ कर पाते.बच्चे और परिवार के समझ के बीच का यही फासला ही व्यक्तिव निर्माण में प्रभावशाली भूमिका निभाता हैऔर जीवन पर्यन्त चरितार्थ होते रहता है .यह सकारात्मक भी हो सकता है और नकारात्मक भी.
अभी गुजरे चंद दिनों की बात कर लें 10वीं -12वीं के परीक्षाफल ने ही बच्चे -अभिभावकों में से कितने को आपसी रिश्तों में नज़दीकी या दूरी बढा दी होगी.चिकित्सा एवम तकनीकि शिक्षा प्रवेशफल ने भी कितने घरों में मायूसी दी होगी. क्या जीवन इतने पर ही रुक जाती है क्या ? नहीँ ना , बात बस इतनी कि समाज की बातों को झेलने की हममें ताक़त नहीँ.हमारे साथ भी कुछ गलत हो सकता इस सोच को कभी अपने अंदर आने देना नहीँ चाहते और फ़िर शुरू हो जाती है बात मनवाने की जिद्द.जिसका असर अहं पर भी पड़ता है.कुछ बातों का अगर ध्यान रहे तो शायद कुछ नादानियों को टाली जा सकती है
1_ बच्चे परिवार में रहकर भी खालीपन के अहसास से गुज़रते हैं , काश कि इस एहसास को माँ -बाप समझ पाते ,
2_ माँ -बाप का आपसी रिश्ता का भी असर बच्चे के व्यक्तित्व निर्माण पर असर करता है जिसके इर्द -गिर्द ही बच्चे की पूरी ज़िंदगी गुजरती है ( जो कि बहस का एक महत्वपूर्ण विषय हो सकता है )
3_बच्चों के खुद के अंतर्द्वंद में माँ -बाप की भूमिका
4_संस्कार शिक्षा
5_माँ -बाप का अपने नींव से जुड़ा होना ,जहाँ अपनी हैसियत और जो कुछ भी रोज़मर्रा की ज़िंदगी में ,समाज में हो रही नई गतिविधियों के बाबत बच्चे में एक पारखी और सूझ -बुझ वाली नज़र पैदा करना माँ -बाप की अहम जिम्मेदारियों में से है
इन बातों को अगर ध्यान रखा जाये तो शायद ये post हर किसी को विचलित नहीँ कर सकती दबाव की ज़िंदगी में ज़रूरत नहीँ ,बस ज़रूरत है दृष्टि ,श्रवण और मस्तिष्क पटल को जागृत रखने की.@Ajha.31.05.16
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