ज़िंदगी अपनी कितनी उलझनों से भर ली
हमने
सामने ही थी खुशी और खुद से दूर कर ली
हमने
हँसते रहते थे हम सदा ना था खामोशियों का
इल्म कभी
ये कैसी तोहमत ,ये कैसे अदावत कि
ज़िंदगी में ना था जिक्र कभी
हर बात को फ़साना बना उड़ा देना
ना थी कोई शिकायत कभी
आज हाल क्यों ऐसा कि किसी में
खैरखवाहि नज़र आती नहीँ
क्यों आदत सी बन गयी कि सोचें
हरदम नासाजगी की
हालत ऐसी बना ली हमने, वो आये तो थे
हाल ही पूछने
गुफ्तगू जो थीं उसे मुझसे करनी,
भरी महफिल से चुपचाप ,वो यहाँ से
तशरीफ़ ले गये
खुदारा खैर नींद मेरी तब खुली जब
शाम होने को आई
ऐसी भी क्या मशरुफियत थी मेरी कि
वो गए और तभी से मैं खाली हो गई
ना था नज़रंदाज़ करना उन्हें पर
क्यों कारे -रोज़गार ने मुझे ऐसा
बना दिया.
अब फ़िर से जी उठी हूँ
मंजिेल भी दीखने लगी है मुझे
बेशकीमती जो पाया है ज़िंदगी ,
इंशाअल्लाह बखूब जीउन्गी उसे.
@Ajha ,
Wednesday, 25 May 2016
उलझी सी ज़िंदगी
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