माँ से शुरू ये जीवन
माँ में ही जीवन
अंत में भी माँ
तो फ़िर क्या समझाना
ऐ मन !
खुद रोती भी रही तो
हँसना ही सिखाया
कांटों से जीवन में रह कर
बुलंदियों तक पहुँचाया
ना था कोई अक्षर का ज्ञान
कैसे था उसने पढ़ाया
कई रातें भूख में ही सोई
गमों में रही सताई
इज्ज़त की ना परवाह कभी
बस सामने है परिवार सभी
तो फ़िर क्या हुआ जो
पैरों पे अपने खड़े हो गये आज
बातें- कसमें भूले वो वफात
पैदा नफ़रतें क्यों हो गईं
एक ही हवा के झोंकें
पकी फ़सल उड़ा ले गई
अब ताकता है क्या
तू भी चला रहा एक परिवार
अब तू भी देखेगा वही सब
जो तुमने दिखाया है अब तक
सन्तान अनजाने में ही
सीख जायेगी वो सब
जो व्यवहार बड़ों के लिये
थे तुम्हारे कर्तव्य
ना दोष आरोपित हो वक्त पर
बोया जो फ़सल तूने अबतक
काटना भी पड़ेगा
इसी जीवन में रहकर
व्यर्थ की बातें है पुनर्जन्म की
ना सोच कभी अगले जन्म की
शाश्वत जो है उसे मान लो
मेहमानों की तरह ही सही
जीवन काट लो
कोशिश हो के माँ की तपस्या
रंग लाये
एक भी आँसू ना माँ के
गिरने पाये
श्रापित ना हो हमारा जीवन
यही हो शपथ
यही हो वन्दन.
@ Ajha .16. 04. 16
Tuesday, 3 May 2016
माँ
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