Tuesday, 3 May 2016

अंजाना सा इक पहचाना चेहरा

कल कोई रास्ता
बता गया
इक अंजान जो राह चला
जा रहा
गलिया तो थी अनजानी सी
पर पता कुछ पहचाना सा
कह गया
उसके लहज़- ए - गुफ्तगू ,
कदमों की आहटें
मुझे कुछ आशना
कर गईं 
लिबासों से तो था  वो
इक 'वैरागी '
तआरुफ़ उसकी मुझे भी
बैरागी बना गई
तभी येक बा येक
याद आई वो सब बातें
जो बचपन में मुझे बना
गई दीवाना
कितना प्यारा था
वो संग जिसे , वो
गुड्डे - गुड़ियों का खेल
बना गया
याद आई थी उन
किताबों की
जिसे वो कोरा काग़ज़
कर गया
भीड़ में चलने की आदत
थी जिसे
वो खुद को तन्हा कर गया
आज गुजरा है फ़िर
उन राहों से
खुद को क्यों इतना
बेसहारा कर गया
राहे - बशर इतनी भी
मुश्किल तो नहीँ
जिंदगी को क्यों इतना
तंग कर  गया
सोचा तो होता जिंदगी
है बेशकीमती
वक्त यूँ जाया वो
गंवा गया
अब आये भी तो क्या आये
ख्वाहिशों का यूँ माखौल
कर गया
बन जाते जो तुम कभी
इक इंसान
बोये हुए बीजों का
सरमाया यूँ  काट गया
हकीकत को जो माना होता
कि यूँ " रेत के मकान में जिंदगी
गुजारा नहीँ जाता "  . 
इस गुमनामी में जीवन को
गुजारा नहीँ जाता .
.  @ Ajha .ना

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