Tuesday, 3 May 2016

ढाई आखर प्रेम का

'ढाई आखर प्रेम का' क्यों ढूँढता है
इसमें  'पूर्णता '
क्या तू नहीँ जानता _
'प' को 'र 'के सहारे की
ज़रूरत है आ पड़ा
'म ' का सहारा भी इसने लिया
तब शब्द 'प्रेम' का बना .
जीवन सोच में निकल गया
क्यों प्राणी इसके पीछे है 'बावरा '
जीवन के उलझनों में थी फँसी
अपने सवालों का जवाब मैं ढूँढ़ती
आ गई उस मक़ाम पर
अर्थ शब्दों के समझने लगी
हर बात के 'मर्म 'तक पहुँचने लगी
संघर्षों में थी मैं टूट रही
तभी रास्ते में इक 'लौ' सा मिला
इक आनंद सा कुछ मुझमें हुआ
अब बाकी नहीँ थी कोई अटकलें
शब्द 'प्रेम ' जो बैसाखियों
मे था दिखा
आज उसी में  दिख पड़ी 'पूर्णता '
' म 'तो था एक स्तम्भ- सा
'प 'और 'र 'को 'ए 'है जोड़ता
यही सूत्र है  प्रेम में 'एकजुटता '
प्रेम मेरा निराकार है
डूबना इन गहराइयों में साकार है
सम्वेदना इससे हो भी क्या
ना है कटुता की भावना
यह एक सम्वाद है
मेरा और उस 'परम' का
जो ना कोई लिख सका
ना वाणी ही है कुछ बता सका
इक 'तिलिस्म' है
जिसमें खुद को पड़ता है 'झोंकना '
गर हुआ जो हाल 'बैरागियो'- सा
तो समझ , मर्म 'प्रेम' का है
समझ लिया 
और नहीँ तो 'माया जाल' मे
जीवन को ले बीता .
यही है सार " ढाई आखर प्रेम का " .

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