Tuesday, 3 May 2016

परिभाषाएं जिंदगी की

जिसकी फितरत हो भूल जाने की
वो भूला करें
अपनी फितरत है यादों में आने की
चलो एक आज़माइश ये भी हो _
मज़ा जीतने में है या हार जाने में .

एक बाजी थी हमने भी खेली
ये सोचकर कि जीत जायेंगे
दिल शाद हुआ कुछ लम्हों के लिये ही
सही आबाद हुआ

ख्वाबों ने कितने ही जश्न मनाये
बारहा कितने सपने सजाये
कितने लुत्फ उठाये
मन भी बावरा हो चला

वो आसमानों भी  आबी हो गया
खेतों में  सरसों के फूल खिल गये 
मौसम ने भी छेड़े सुरीली ताने अपनी
समंदर की लहरें भी थी उफान पर अपनी

सारा आलम ही खुशगवार हो चला
कोई हाथी तो कोई घोड़े पे सवार हो चला
महबूबे- इलाही की वो बातें याद आने लगी
हवायें  भी उनकी सदायें सुनाने लगी

पहुँची जो अपने मंज़िल पर
ये क्या माज़रा हुआ अजब
जितनी बातें थीं जेहन में सब झूठ हो गई
जीती हुई बारी को हार के मैं खुश हो गई .

क्या तिलिस्म था , क्या अंदाज़
सोची हुई सब बातें हम भूल गये
जो भी थे शिकवे ओ शिकायत दूर हो गये
मैं निहारती ही रही , वो मेरे नूर हो गये . .
@ Ajha 
Aparna jha .

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