आज उस्ताद बिस्मिल्लाह खान साहब की पुण्य तिथि पर ना जाने क्यों मांझी की बातें याद करने का मन हो रहा है . जहाँ तक मुझे याद है , संगीत वाद्यों से मेरा परिचय शहनाई के माध्यम से ही हुआ था . उन दिनों शायद संगीत concert में आम लोगों के जाने का प्रचलन ना हो , तो जब शादियाँ हुआ करती थी तो वहाँ शुभ संदेश के लिये शहनाई बजा करते थे . पता नहीँ कब और कैसे मुझे अपने कुछ तार उन धुनों में जुड़े महसूस होने लगे थे. बड़े होने पर बाबूजी से इसका कारण पूछा तो थोड़ा रुंधे गले से बोले _ ये तुम्हें अच्छा लगता हो लड़की के बाप को नहीँ .ये बात थी शहनाई में और इसमें तिलिस्म पैदा करने वाला भला खाँ साहब के अलावा और कौन हो सकता था .
मैं ने खाँ साहब के प्रोग्राम में शिरकत किया , तो यही पाया की उनके सुर को सुनने से ही बात पूरी नहीँ होती थी . उनका अपने शहनाई को इस नजाकत और नफासत से साफ करके उसे देखना , मानो शहनाई से आज्ञा मांग रहे हों कि क्या मैं बजा लूँ और इतना ही नहीँ धुन बजाते हुए बीच - बीच में रुककर वाद्य की तरफ़ इस तरह निहारना की आप को कहीँ दर्द तो नहीँ हो रहा . और जब इन सबसे आश्वस्त हो जाते तो अपनी टोपी को थोड़ा तिरछी करते हुए , चेहरे पर एक निश्छल मुस्कान के साथ उनका पूर्वी धुन छेडना , माशाल्लह खुद को मैं खुशकिस्मत मानती हूँ कि ऐसे तिलिस्म की मैं साक्षी रही . एक बार नहीँ बल्कि चार बार . मेरा मानना है कि जबतक ये कायनात रहेगी , तबतक आपका वजूद रहेगा . फ़िर भी आज क्यों ये कहने का दिल कर रहा है _ खाँ साहब , we miss you a lot .
Tuesday, 10 May 2016
बिस्मिल्लाह खान
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