" ढाई आखर प्रेम का "
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प्रेम के रुप अनेक
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हर शाम की ही तो थी
बात
हर रोज़ होती थीं अपनी
मुलाकात
चाय की एक प्याली पर
गुफ्तगू होतीं थीं
बेहिसाब
मुझे याद है आज तक वो
शाम
किसी बात से हुए थे तुम
परेशान
सबब पूछने पे किया था तुमने
राज़ सब पर्दाफाश
कर आये थे किसी से तुम
अपने प्यार का
इजहार
मन की ख़ुशी में भी थी
तुझे एक बेचैनी का
एहसास
कह उठे थे तुम मुझसे कैसे _
" अब ना होगी मुझसे कोई .
सृजनात्मकता
अब मैं कैसे लिखूं ग़ज़ल या
कविता
ख्यालों में था जिसे मैं ढूँढता
जिस मृगतृष्णा के पीछे था
भागता
गजगामिनि सी थी मेरी
नायिका
वो थी मेरे ख्यालों की मल्लिका
ऐसा जो हकीक़त में नहीँ है
होता
मेरे मौला ! वही ख्वाब आज
हकीकत बन है खड़ा
अब वही मेरे जीवन का
आईना
अब मेरी तलाश में है
पूर्णता
सफल हुई है मेरी साधना
अब और नहीँ मैं कुछ चाहता
सबब जीने का है मुझे मिला
अब जो जिंदगी से है मेरा
वास्ता
'बैरागी ' हूँ मैं बन बैठा "
मेरे मन ने तभी यही था
कहा , शायद यही है होता _
" ढाई आखर प्रेम का "
@ Ajha . 19. 04. 16
Aparna jha .
Tuesday, 3 May 2016
ढाई आखर प्रेम का
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